शनिवार, 10 अप्रैल 2010

अखिल भारतीय भोजपुरी सम्मलेन गोपालगंज में 'पं.राहुल सांकृत्यायन'जी के वक्तव्य


अखिल भोजपुरी साहित्य सम्मेलन, गोपालगंज में राहुल सांकृत्यायन का भाषण


भाई बहिन लोगिन

सरसुती माई के दरबार में जे अपने सब एतना मान हमरा के देहलीं ह ओकरा खातिर हम अपना के धन- धन समझतानी अबहीन हमनी के इ मतारी भाखा के केहू ना पूछत आछत बा लेकिन कतेक दिनवा हो, कतेक दिनवा. हमनी के देस के दिन लउटी आउर उहो दिनवा आई जब हमनी के भाखा सिरताज बनी. एक करोड से बेसी बीर बंका जेकर पूत, उ भखा केतना दिन ले भिखमंगीन बनल रही. हिनुई हमनी के बडकी माई ह आ ओकरा से नेह तूरे के काम नइखे. आज हिनुतान में लोग के राज भइल. हमनी के राजा रानी के राज ना चाहीं. इ लोग के राज तबे निमन चली जब लोग हुसियार होई. आ उ बूझे कि दुनिया जहान में का हो रहल बा. अपना देस में केहू बेपढल ना रहे. एकर कवन रहता बा.

ज् हिनुए में लिखे पढे के होई त हमनी के लइका पचासो बरिस में पढुआ ना बनी. आ एने हमनी के दसे बारह बरिस मेंसमूचा मुलुक के पढुआ बनावे के बा. कइे से होई ई कुलि. हमरा समझ में एकर एके गो रहता बा. सोझे एक पेडिया रहता. जे आपनआपन बोली में सबके पढावल गुनावल जाये. जउना मुलुक में सधारण लोग के राज न होला उहां कुलि ख्जगह इहे कइल जाला. कि लोग के बुरबक बना के रखल जाला. चार दरजा ले लइका लइकिन के अपना बोली में कबात आ बिचार कुल पढावल जाये. बुढ भा सेयान केहू आपन बोल में पढल लिखल चाहे तो ओकरो खातिर मोसकिल नइखे. फेनु सब लोग ककहरा पढ के अपना अपना बोली में पेाथी आ खबर बांचे लागी. समूचा लोग के पढुआ होखे खातिर इ बहुत जरूरी बा. अदमी के पास उ इलिम बा उ कल मसीन बा कि सातो नदीन आउरर धरती के पेट के पानी झपीछ के बहरा क देओ. एतने से बरहो महिना हमनी के पानी मिल सकेला. ओकरा खातिर देव के आगे हाथ जोरलाके काम नइखे. हिंदुस्तान के गरीबी दूर होखे के रहता इहे बा कि बेसी से बेसी मील करखाना खुले. अ बरहो मास खेत पटवे के पानी आ खादर जुटल रहे.

ळहमनी क बोली छपरा बलिया चैपारण अउर आरा जिले में तो बडले बा बनारस के बोली में बहिुत कम फरक बा. चउपारण सारन साहाबाद पलामू आ थोर बहुत रांचीयो में हमनिये के बोली बोलल जाला. ओने बलिया, गाजीपुर आजमगढ गोरखपुर देवरिया समुचा आरा जवनपुर, मिरजापुर के कुछ कुछ हिस्सा इहे भाखा बोलेला. हमनी के बोली के एक गो फरका प्रांत बने के चाही एकर कवनो मतलब नइखे कि एके बोली बयवहार वाला लोग दू जगह बंअल रहे. अंगरेज लोगन के बात अउरी रहे. जइसे जइसे राज दखत होत गइल अपना काम में ेजेवर सुविस्ता दिखाइल ओइसने उ लोग बटवरा कइलक. आजकल के जमाना में छिटपुट रहला से काम ना चली. हमनी के पछिम के प्रांत में पूरब वाला जिला जइसे बलियां देवरिया वगैरह के पूछार सबसे पाछे होला पहीलहुं से एही होत आ रहल बा आउर आगहूं इहे होई. अपना फरका प्रांत भइला पर अपना घर के सोरहो आना मालिक मुख्तार हमनिये के होइब. फेनु कुल काम अपने मन मोताबिक होई. हमनी के आपन पंचइती राज प्रजातंत्र कायम करेके चाहीं. अलग राज के नाम अपने सब मल्ल रखीं चाहे कासी रखीं चाहे दुनो जिला मिला के मल्ल कासी रखीं. चाहे भोजपुर राखीं, अपने सब के मन. बाकि इस बात ध्यान रखीं. कि गाछ गिनला के काम नइखे, मतलब हवे फल से. चाहे कइसहूं होवे, हमनी के एकगो पंचइती राज होवे के चाहीं. इ बनावल अपना सबे के हाथ में हवे. बोटवा त अपनहीं सब के देबे के परी. फिर कइसे नाही आपन पंचइती राज बनी.

क् हमनी के बोली में पोथी ना लिखाइल. किछु छोटकी छोटकी पोथली छपइबो कइल त एहे दु चार गो मेला घुमनी. ओइसे जब तब भला होवे रघुवीर बाबू के, मनोरंजन बाबू के जे दु चार गो गीत लिख के समूचा धरती में फइला दिहलें. बिदेसिया, फिरंेिगया अजहूं ले हमनी के मन से भोर ना परेला. हमनी के बोली में केतना बढिया कवितई हो सकेला. एके अपने सब सिवान के सभा में बिसराम के बिरहा में देखले हो इब जा. बिसराम के कविताई अइसन ओइसन कविताई नइखे. हम सभत्तर के कविताई पढले सुनले बानीं. बाकि बिसराम अइसन कविताई बहुत कमे देखे मं आवेला. परमेसरी बाबू के धनी धनी कहेके चाहीं कि उ बिसराम के 22 गो बिरहा लिख लेहलन. इ मालूम रहित कि एतना हाली बिसराम चल दिहें त हमीं उनके साथ एक महिना घुमन होती.

क् हमनी के बोली में केतना जोर हवे? केतना तेज बा इ अपने सब भिखारी ठाकुर के नाटक में देखले होइब. नाटक देखे खातिर दस दस पनरह हजार के भीड एही से मालूम हो जाला कि नाटक में पबलिक के रस आवेला. जवना चीज में रस आवे, उहे कविताई ह. केहू के जे लमहर नाक होखे आउर उ खाली दोसे सुंघत फिरे तो ओकरा खातिर का कहल जाई. हम ए से कहत बानी कि भिचाारी ठाकुर के नाटक में दोस नइखे. अगर दोस बा तो ओकर कारण भिखारी ठाकुर नइखबन, ओकर कारण हवें पढुवा लोेग. उहे लोग जे अपना बोली से नेह देखाइत भिखारी ठाकुर के नाटक देखित आ ओमे कउनो बात सुझाइत त दोस मिट जाइत. भिखारी ठाकुर हमनी के एगो अनगढ हिरा हवें. उनकर में कुल गुण बा. खाली एने ओने तनी तुन्नी छांटे के काम बा.

हम त कहब कि हमनी के बोली में पतिरिका चाहे अखबार निकले के चाहीं जवना में लोग के दूसरो बात समझावल जाये. अउरी नइकी पुरनकी कवितो छापल जाये. हमनी के भाखा के बारे में डाकटर उदय नारायण तिवारी ढेर काम कइलें. एगो बडका पोथी अंगरेजी में ओही के बारे में लिखलें. जे पुरान कागज अउरी पोथी मिले त ओकरो के बटोर के छपावे के चाहीं. उ अभागे होई जे आपन जनम धरती अउरी जनम के बोली से पियार ना रखी. पियार के मन में रखला के काम नइखे. ओके परगट करेके चाहीं. हमनी के भाई बहीन चारो खूंट में कतहूं जे मिलेला त अपना बोली में बतियावे मंे तनिको संकोच ना करेला. हम देखिलें कि दोसरो दोसरा जगह के लेाग अपना बोली बानी छोडि के अरबी फारसी बुके लागेला. आ अपन जनम धरती के छुपावेला. अब हमनी के तनी पग अउर बढावे के काम बा. आ अइसन करेके बा जिनिगिये में आपन प्रजातंत्र मल्ल कासी पंचायती राज कायम हो जाए.
(दिसंबर १९४७ में गोपालगंज में'महापंडित राहुल सांकृत्यायन जी द्वारा दिहल वक्तव्य.bidesia.co.in से साभार)

मंगलवार, 30 मार्च 2010

मैथिली मेरी माँ और भोजपुरी मौसी है-पद्मश्री प्रो.शारदा सिन्हा.


शारदा सिन्हा ना केवल बिहार बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और विश्व भर में जहां कहीं भी हमारे गिरमिटिया पूरबिया कौम है उनके लिए एक पारिवारिक सदस्य सरीखा नाम है.शारदा सिन्हा नाम सुनो तो लगता है अड़ोस-पड़ोस की बुआ,ताई,या मौसी है.ये मैं नहीं कह रहा बल्कि उन अनेक सज्जनों ,छात्रों से सुन चुका हूँ जो भोजपुरी से परिचित हैं और जिनके लिए भाषा का प्रश्न उनकी अपनी संस्कृति से गुजरना होता है चाहे वह इस दुनिया के किसी भी छोर पे हों.पटना से बैदा बोलाई द हो नजरा गईले गुईयाँ/निमिया के डाढी मैया/पनिया के जहाज़ से पलटनिया बनी आईह पिया इत्यादि कुछ ऐसे अमर गीत हैं जिन्होंने शारदा जी के गले से निकल कर अमरता को पा लिया.कला सुदूर दरभंगा में भी हो तो पारखियों के नज़र से नहीं बच पाती,राजश्री प्रोडक्शन वालों ने जब अपनी सुपरहिट फिल्म 'मैंने प्यार किया'के एक गीत जो की लोकधुन आधारित था को गवाना चाहा तो मुम्बई से हजारों किलोमीटर बैठी शारदा जी ही याद आई.इस फिल्म के अकेले इस गीत'कहे तोसे सजना तोहरी सजनिया'के लिए दसियों बार देखी गयी थी.
मेरे पिताजी जो भोजपुरी फिल्मों के(८०-९०के दशक की फिल्में)तथा भोजपुरी लोककलाओं के बड़े रसिक हैं एक बार छत के गीत 'केरवा जे फरेला घवध से ओईपर सुगा मेड़राये/पटना के पक्की सड़किया/कांचही बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाये...आदि सुनते हुए बोले-"शारदा सिन्हा के आवाज़ में हमनी के परिवार के मेहरारू लोगिन के आवाज़ लागेला"-उनके कहने का तात्पर्य था-'शारदा सिन्हा की आवाज़ में भोजपुरिया पुरखों की आवाज़ गूंजती है.

पिछले २८ मार्च को प्रगति मैदान नयी दिल्ली के हंसध्वनी थियेटर के मंच से मैथिली-भोजपुरी अकादमी के सौजन्य से इस अज़ीम शख्सियत से रूबरू होने का मौका मिला.यहाँ पर उन्होंने गायन से पहले अपने संबोधन में कहा-मैं पैदा मिथिला में हुई.मैथिली मेरी माँ है और भोजपुरी मेरी मौसी.वो कहते हैं ना कि'मारे माई,जियावे मौसी' यानी इन दोनों भाषाओँ की सांस्कृतिक दूत की सच्ची अधिकारी की इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शारदा सिन्हा जी को कोई भी भोजपुरिया ये नहीं कह सकता कि वह उनकी अपनी नहीं है.उनके सुनते हुए आज भी वही कसक वही ठसक वही खांटी घरेलूपन उतनी ही गहराई से बरकरार है. भारत सरकार से शारदा सिन्हा जी को 'पद्मश्री'देकर सम्मानित किया है.इतना ही नहीं प्रो.शारदा जी मिथिला यूनिवर्सिटी के संगीत विभाग में भी हैं.मैंने पहली बार शारदा जी को सुना/देखा अहसास नहीं हुआ कि वाकई यही शारदा जी हैं जो पूरे भोजपुरियों कि खास अपनी ही हैं.हालाँकि मैथिली गीतों में भी इनकी पर्याप्त ख्याति है पर शायद संख्या अधिक होने की वजह से इन्होने भोजपुरिया समाज के विशाल परिवार में अपनी जबरदस्त पैठ बनायीं है.मैं सोचता हूँ आखिर कोई कैसे इतना अपना हो सकता है कि ना मिले हुआ भी घरेलु हो और जिनके बिना एक संस्कार पूरा ना हो,यह तो कोई मिथकीय चरित्र ही है जो बरबस ही हमारी गोदी में आ गिरा.शारदा सिन्हा जी भोजपुरी गीत संगीत की उस परंपरा की ध्वजवाहक हैं जो भड़ैतीपने से दूर लोक की ठेठ गंवई अभिव्यक्ति है.सच ही तो है -'पद्मश्री प्रो.शारदा सिन्हा जी की आवाज़ सच्चे अर्थों में हमारे पुरखों (यहाँ मैं साफ़ कर दूं कि पुरखों से तात्पर्य भोजपुरियो-मैथिलियों की नारियां)की आवाज़ है.हम खुशनसीब हैं कि शारदा जी हमारी मिटटी में पैदा हुईं'-

सोमवार, 29 मार्च 2010

भोजपुरी की 'मदर इंडिया'-"धरती मईया".......

'जाके ससुरारिया गरब जन करिह

सबके बिठा के पलक कोठे रखिह

बड़के आदर दिहा छोट के सनेहवा

इहे बा सकल जिनगी के हो सनेसवा

दुनु कुल के इजत रखिह

बोलिहा जन तींत बोलिया..'

पैदा होते ही परंपरा से भर दिए गए इसी भाव-बोध के साथ एक लड़की,उसी तरह विदा होकर मायके से ससुराल आती है.और सारी उम्र अपने उस नए घर को सँवारने में अपनी जिंदगी की सार्थकता मान लेती है.'धरती मईया'इसी भावबोध की कहानी है.एक स्त्री के उच्चतम आदर्शों की छवि की कहानी.कमाल की बात है कि मेनस्ट्रीम फ़िल्मी फ्रेम के भीतर यह आदर्श उभरता है.ब्रजकिशोर,कुनाल,पद्मा खन्ना,श्रीगोपाल अभिनीत और कमर नार्वी निर्देशित भोजपुरी फिल्म 'धरती मईया'(१९८१)अपने दौर की सफलतम फिल्मों में से एक है.अपने पति को दिए वचन के अनुसार ताउम्र उसको निभाने में नायिका(पद्मा खन्ना)का जीवन संघर्ष अंततः जीतकर सुखान्तकी रचता है.उपरी तौर पर कहें तो अपनी सीमाओं के साथ यह फिल्म भोजपुरी की मदर इंडिया है पर दुखांतक नहीं.वैसे भी जिस तरह से हालीवुड की फिल्मों का प्रभाव हमारी हिंदी फिल्मों में रहता है उसी तरह क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों पर भी हिंदी फिल्मों का प्रभाव बेहद होता है.ऐसा होना स्वाभाविक भी है.

'धरती मईया'की कहानी और उसमें वर्णित समाज-व्यवस्था भले ही सामंती ढाँचे और सोच में ढली रही हो,परन्तु उससे टकराने तथा उसमें अपने होने के अर्थ को तलाशकर उस ढाँचे को तोड़ने की तत्परता भी इसमें है.मंगल(राकेश पाण्डेय)एक विधुर किसान हैवह अपने लड़के राम की अच्छी परवरिश की खातिर दूसरी शादी कौशल्या(पद्मा खन्ना)से करता है.सुहाग की सेज पर वह अपनी पत्नी से वचन लेता है कि वह राम की सगी माँ बन जाये और इस वचन से आबद्ध हो कौशल्या उस बिन माँ के बच्चे की माँ बन जाती है.इसी गाँव में लाला /महाजन भी है,जो गरीब किसानों को क़र्ज़ देकर न केवल अपनी जमीन कौड़ियों के मोल हथिया लेता है बल्कि उन्हें बंधुआ मजदूर भी बनके अपनी गिरफ्त में ले लेता है.जब नायक मंगल पर उसकी दाल नहीं गलती तब वह उसे मरवा देता है और जिस नयी-नवेली औरत के पाँव की महावर भी अभी नहीं छूटी वह एक बच्चे को गोद तथा दुसरे को गर्भ में धारण किये जीवन संघर्ष के रण में उतर जाती है.'धरती मईया,यहीं से रफ़्तार पकडती है.

लाला नायिका के दोनों बैलों को मरवा देता है.किसान के बैल उसके जवान बेटों की तरह होते हैं जिनके कन्धों पर वह जिंदगी का जुवा रखकर खेती करता है और अपने लाल पसीने से उसे सींचता है.बैलों के मरने पर भी नायिका का हौसला नहीं मरता,वह जुवे को अपने कन्धों पर उठती है और अपने दोनों बच्चों की परवरिश करती है और इतना ही नहीं अपनी एकमात्र ननद की शादी भी कराती है.वह कहती है-'हम तहार भउजी ना हईं,अब तू हमरा के आपन भईया समझिह.'-ननद नायिका के पैरों में झुक जाती है कहती है-'हम अपना माई के नईखीं देखले तू जाउन कईलू उ ता आपनो माई ना करीत'-यहीं से नायिका का चरित्र और उदात्त रूप धर लेता है और नायिका का चरित्र सबको भरने वाली माई के तौर पर उभर के सामने आता है.अंततः दुःख के दिन बीतते हैं और दोनों बेटे युवा होतें हैं.नायिका को अपना संघर्ष समाप्त होता दीखता है परन्तु सौतेले बड़े भाई के प्रति माँ का विशेष राग देखकर लखन(कुणाल)लाला के बहकावे में आकर बंटवारा करवाता है परन्तु लाला की असलियत सबके सामने खुल जाती है कि मंगल(नायिका का पति)को उसीने मरवाया था.गाँव का एक बैल लाला को अपनी सींगो से मार-मारकर मौत देकर 'पोएटिक जस्टिस'की पुष्टि कर देता है और एक बेहतरीन बनी फिल्म अपनी पूर्णता को पाती है.

धरती मईया का उत्तरार्द्ध तमाम फ़िल्मी फार्मूलों से बंधा होने के बावजूद कुछ जमीनी समस्याओं की पड़ताल करता है और उसका निदान भी सुझाता है.किसानों का,समस्या और बैलों की एक जोड़ी से अन्योनन्यास्र्य संबंद्ध हमेशा से रहा है चाहे वह कृषक भारत के किसी भी प्रांत का हो.नायक ने अपनी माँ के कन्धों पर जुवा देखा है ऐसे में उसके लिए व्याह प्राथमिकता में नहीं वरन ड्योढ़ी पर एक जोड़ी बैल हैं-'माथा पर मऊर बान्हला से जियादे जरुरी बा दुआरी पर बैल बान्हल'-साथ ही,'धरती मईया'समाज में व्याप्त शराबखोरी,बाल-विवाह,विधवा विवाह आदि मुद्दों से भी दो-दो हाथ करती है.शांति बाल विधवा है और मनहूस के नाम से पूरे मोहल्ले में कुख्यात है.पर वह राम की बाल-सखी भी है,जिसके साथ राम ने कभी घरौंदे बनाये थे जीवन के मीठे ख्वाब बुने थे,.वह उसका हाथ थामता है और वह उसे स्वीकारता है और शांति की इस दशा के लिए रुढियों को को दोष देता है.'तहार कवनो दोस नईखे शांति.कसूर बा त इ प्रथा के बा जेकरा चलते तहार बचपने में बियाह हो गईल'-वह उसे तमाम विरोधों के बाद भी स्वीकारता है,इसमें उसकी माँ उसका साथ देती है.नायक के इस कदम से घर में बंटवारे की स्थिति आ जाती है और जब घर फूटते हैं तो गंवार लूटते हैं की लोक-कहावत साफ़ उभरकर सामने आ जाती है.इसी प्रसंग में लखन(कुणाल)ताड़ीखाने में ताड़ी पीने की वजह से पूरे समाज की नजरों में गिर जाता है.आज भी हमारे ग्राम्य-समाजों में शराब पीने वालोए को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता.

भारतीय ग्रामीण समाज सदा से ही विविध समस्याओं बाढ़,सूखा,महाजनी-सामंती फांस आदि का शिकार रहा है.अन्न उपजाने वाला खुद दो जून की रोटी को तरसता है,ऐसे समाज के लोगों द्वारा इस अभाव में भी भाव पैदा करने वाले कारणों की खोज कर ली जाती है और यह सांझ को चौपालों पर होते कीर्तनों में दीखता भिया है यानी 'हारे को हरिनाम'.फिल्म में 'संतोषी मईया' का दैवीय चरित्र ऐसी स्थिति में इन गरीबों को आत्मबल देता है क्योंकि यह मईया'गरीबों के 'कम खाओ ग़म खाओ'की मूर्तिरुपा है.इसलिए 'धरती मईया'में संतोषी मईया को केन्द्रित करके एक गीत डाला गया है,जो नायिका के विपरीत परिस्थितियों में दर्शकों तक को संतोष देता है भगवन सब ठीक करेगा एक दिन.अनपढ़ जनता इसी भुलावे में तो जीती रही है आजतक.बहरहाल,यह गीत संभवतः तबकी जबरदस्त हिट फिल्म 'जय संतोषी मईया'की सफलता से प्रेरित होकर डाली गयी होगी ऐसा कहना गैर मुनासिब नहीं होगा.

'धरती मईया'में भोजपुरी लोक कहावतें भी बहुतायत में हैं जो संवादों को और अधिक असरदार बनाती हैं मसलन-'ना नव मन तेल होई ना राधा नचिहें/जल्दी के बियाह कनपटी में सेनुर/गोदी में लईका नगर में ढिंढोरा/रसरी जर गईल बाकी अईठल ना गईल/मीठ सम्बन्ध से दुश्मनी ख़तम हो जाला-इत्यादि कुछेक ऐसी कहावतें हैं जो भिओज्पुरिया जनजीवन के दैनंदिन वार्तालाप में चटनी का काम करती है.१९८० के शुरूआती वर्षों से लगभग १९८६-८७ तक भोजपुरी फिल्मों का एक बेहतरीन दौर है.इन फिमों की पृष्ठभूमि और ट्रीटमेंट खालिस औडिएंस को ध्यान में रखकर बनायीं जाती थी यही कारण है कि फिल्मों में आज भी भोजपुरिया जनता नोस्टाल्जिया में चली जाती है.'धरती मईया'उसी कड़ी की गोल्डेन जुबली मना चुकी एक भोजपुरी क्लासिक है.भारतीय फिल्मों का दर्शक वर्ग गीत-संगीत के बिना फिल्म की कल्पना नहीं करता,यह उनके भीतर तक पैठा हुआ है.ग्रामीण समाज में भिन्न-भिन्न त्योहारों,फसलों,मौसमों,संस्कारों,आयोजनों आदि के गीत गाये जाते रहे हैं और जनता की इसी चित्तवृति को इन फिल्मों ने पकड़ा.'धरती मईया'इस एंगल से भी मजबूत फिल्म है,लक्ष्मण शाहाबादी के गीत और चित्रगुप्त के खांटी पूर्वी संगीत की जुगलबंदी ने बॉक्स-ऑफिस पर तहलका मचा दिया-'जल्दी जल्दी चल$ रे कहारा,सुरुज डूबे रे नदिया/ फूट जाई हमरी गगरिया ना/पूजिंले ले चरण तोहार ऐ संतोषी मईया/आपण सुख के सुख ना बूझे,सबके दुःख अपनावे,हमार धरती मईया/केहू लुटेरा केहू चोर हो जाला आवेला जवानी बड़ा शोर हो जाला/ना जा ना जा ना कर लरिकैया बलम/जाने कईसन जादू कईलू मंतर दिहलू मार/हाथवा में मेहँदी,पांवे महाबर,मथवा टिकुलिया सजा द$बलमू '-जैसे गीत आज भी भोजपुरी की शक्ल बिगाड़ते भौंडे और अश्लील गीतों की बहुतायत के बीच बड़े चाव और गर्व से सुने-सुनाये जाते हैं.कोई गीत कितनी खूबसूरती से स्त्री देह की मांसलता और सौंदर्य को,सौन्दर्य के खांचे में ही रखकर फिल्माया जा सकता है,यह'फूट जाई हमरी गगरिया ना$भउजी दिहें हमरा के गरिया ना'-गीत में नायिका के नाभि-दर्शना साड़ी, भींगे आँचल और नायिका के (हिंसक) नृत्य के बावजूद कुशल निर्देशकीय का ही कमाल है जो यह गाना अश्लील होने से बच जाता है,जिसकी पूरी सम्भावना थी.वरना थोड़ी सी चूक से यह गाना अश्लील हो सकता था.'धरती मईया' इसी बारीकी से बुनी और रची गयी फिल्म है यही वजह है कि आज भी यह फिल्म न केवल अपने कथ्य में बल्कि प्रयोग में भी पुरानी मालूम नहीं पड़ती.यह आज भी भोजपुरी समाज की तस्वीर लेकर सामने आती है,जिसमें भोजपुरी के अपने संस्कार हैं,जो आजकल की भोजपुरी फिल्मों से नदारद होता जा रहा है.

हामरे देहातों में आज भी 'न्यूक्लियर फैमिली'का कांसेप्ट पूर्णतया स्वीकार्य नही है.'धरती मईया'जैसी फिल्में इसी आदर्श स्थिति की भूमिका रचती हैं.वर्तमान की भोजपुरी फिल्मों से वह सहजता तथा जमीनी जुड़ाव गायब है.आज जरुरत है थोड़ा-सा ज़मीनी समस्याओं और यथार्थ से जुड़ने की,वरना जितनी तेज़ी से आज का भोजपुरी फिल्म जगत उभरा है,उसे बुझने में देर नहीं नहीं लगेगी.'धरती मईया'यूँ ही नहीं क्लासिक की परंपरा में आई है,आखिर आज की किस भोजपुरी सिनेमा में बच्चे 'ओका बोका तीन तडोका' खेलते हैं?यह लोकरंग गायब हो चला है और भोजपुरी फिल्में इस समाज और उसके सांस्कृतिक परिवेश से कटती जा रही हैं,मेरे जैसा सिनेड़ी भी भोजपुरी की नयी फिल्मों से डरने लगा है पर उम्मीद की लौ अभी भी जल रही है.

(जस्ट इंडिया (मासिक पत्रिका)के अप्रैल अंक में प्रकाशित)

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

भोजपुरी की पहली फिल्म-गंगा मईया तोहे पियरी चढईबो

'गंगा मईया तोहे पियरी चढईबो'को भोजपुरी की पहली फिल्म होने का गौरव प्राप्त हैi इस फिल्म के निर्माता विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी तथा निर्देशक कुंदन कुमार थे.साथ ही,संगीत का जिम्मा चित्रगुप्त का था और फिल्म के गीतों को लता मंगेशकर,सुमन कल्याणपुर,मो.रफ़ी,उषा मंगेशकर ने स्वर दिया था.यह बहुत संभव है कि किसी क्षेत्रीय ज़बान की पहली फिल्म को शायद ही वह सफलता नसीब हुई हो,जो भोजपुरी की;गंगा मईया...'के हिस्से आई.नए-नए आज़ाद देश की तत्कालीन समस्याओं को एक बेहतरीन कथानक तथा उम्दा गीत-संगीत में पिरोकर सेल्युलाईड पर उतारा गया था,यही वज़ह रही कि यह फिल्म भोजपुरी की एक उत्कृष्ट क्लासिक का दर्ज़ा पा सकी.

दर्शकों के हिस्से दो मापदंड होते हैं,एक कहानी के कारण कोई फिल्म अच्छी लगती है तो दूसरे अपनी कलात्मकता की वज़ह से उनके मन को भाती है.यद्यपि कलात्मकता के मूल में भी कहानी ही होती है.सारा क्रिया-व्यापार कहानी-कलात्मकता-सम्प्रेषण के सामंजस्य की मांग करता है.इसी का मेल फिल्म को जीवंत और उत्तम बनता है.'गंगा मईया...'की शुरुआत ही जमींदार (तिवारी)द्वारा एक किसान की बटाई ज़मीन वापस ले लिए जाने से होती है-'सरकार त अइसन कानून बनवले ह कि जेकर जोत रही खेत ओकर हो जाई'-यह फिल्म आज़ादी के बाद के नेहरूवियन समाजवाद का माडल तथा तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक दर्शन की झांकी लिए है.फिल्म का नायक(असीम कुमार)एक शिक्षित आदर्शवादी युवक की भूमिका में है,जो अपने ज़मींदार पिता के उलट समता की बात करता है.वह शहर में ऊँचे दर्जे तक पढने के बावजूद गाँव में ही रहकर खेती करना चाहता है क्योंकि उसका मानना है कि पढ़े-लिखे लोग अधिक वैज्ञानिक ढंग से खेती कर सकते हैं,पर उसके पिता का कहना है कि-'कागज़ पर हल ना चलेला'-नायिका (कुमकुम)को इस बात का मलाल है कि वह अनपढ़ है,वरना अपनी प्रेमपाती खुद ही लिखती.नए रंग-ढंग और पुराने कुरीतियों के बीच की बहस को इस फिल्म में इतनी सावधानी से पिरोया गया है कि वह कहीं से भी ठूंसी नहीं लगती.

'गंगा मईया...'की मूल कथा के बीच प्रकरी की तरह एक दृश्य है-गाँव के स्कूल के लिए चंदा इकठ्ठा करने को बैठी पंचायत का क्योकि स्कूल में बच्चों की संख्या में इजाफा हो गया है और मूलभूत सुविधाएं उस अनुपात में नहीं हैं.यह अकेला दृश्य काफी देर तक हमारे दिलो-दिमाग पर छाया रहता है.एक ग्रामीण का तर्क है कि लड़कियों का नाम स्कूल से हटा दिया जाये क्योंकि 'लड़की सभे के पढ़े-लिखे के का जरुरत बा?-नायिका का पिता(नजीर हुसैन)खुद ही अनपढ़ होने का दंश झेल रहा है,वह विरोध जताते हुए कहता है कि मर्दों के काम के लिए बाहर चले जाने पर-'हमनी यहाँ के औरत चिट्ठी-पत्री तार अईला पर तीन किलोमीटर टेशन जाली पढ़वावे बड़े.लड़की कुल पढिहें त इ नौबत काहे आई?-यह ग्रामीण समाज भी अभावों को झेलने को अभिशप्त है.अतः एक प्रश्न और उठता है कि स्कूल आदि की सुविधाओं को देखने का काम तो सरकार का है,तब पंचों का जवाब है-'सरकार स्कूल के रूपया-पईसा देले पर उ पूरा ना पड़ेला,फेर सात लाख गाँव बा इ देश में तब सरकार एतना जल्दी कईसे सब कोई तक पहुंची?तब हमनी के ऐ तरफ से भी सोचे के बा.-यानी नए स्वाधीन देश में सहकारिता और सामूहिक प्रयास से उन्नति का प्रयास.नेहरु के सन्देश की पैरवी.

असीम कुमार अपने पिता की दहेज़ के लालच को धिक्कारता है-'आज हमार एगो बहिन रहित त एतना दहेज़ के बात पर रउआ पर का बितीत'-'ऐ देश में हमार अईसन केतना भाई बहिन बाड़े जे तिलक-दहेज़ के समस्यासे त्रस्त बाड़े'-यहाँ पर नायक का चरित्र एक प्रगतिशील आदर्शवादी युवक के तौर पर उभरता है परन्तु इतने ऊँचे मूल्यों की बात करने वाले नायक की तमाम आदर्शवादिता पंचों के आगे यह हिम्मत नहीं कर पाती कि वह नायिका से अपने रिश्तों को स्वीकार सके और गरीबी तथा क़र्ज़ के बोझ तले दबा लड़की का पिता अपनी जवान बिटिया की शादी उसके उम्र से दोगुने उम्र के पुरुष से करने को मजबूर होता है.बेमेल विवाह के परिणामतः नायिका असमय विधवा हो जाती है.नायिका की माँ(लीला मिश्र)इसी दुःख से चल बसती है.'गंगा मईया...'बरबस ही प्रेमचंद के 'गोदान'की याद दिलाता है ना केवल कथानक के प्रवाह में बल्कि दृश्यों तक में.नज़र हुसैन अँधेरी कोठरी में बैठा है और गाँव की महिलाएं सनझा रोशन कर रही हैं और नजीर के घर कोई औरत नहीं जो सांझ का दिया जलाये,बिन घरनी घर भूत का डेरा स्वतः ही सामने आ जाता है.मरद का साठे पे पाठा होना हो अथवा ज़मींदार,महाजन,क़र्ज़.किसान,जाति-भेद,बेमेल विवाह की समस्या जितनी गोदान के लिखते वक्त थीं उससे रत्ती भर भी कम नए आज़ाद भारत में नहीं था.आदर्श और यथार्थ का गहरे तक गूंथा हुआ कथानक फिल्म को ऊँचा उठा देता है.

यह फिल्म ढहते हुए सामन्तवाद का भी चेहरा सामने लाती है.नजीर हुसैन ताड़ीखाने में ताड़ी पी रहा है,यह ऐसी जगह है जहां जात नहीं पैसा अहमियत रखता है.वह ताड़ी के प्याले में ऊँगली डालकर कहता है-'ताड़ी के लबनी केतना गहिर बा?हमार खेतवा,बरिया,घरवा सब एही में डूब गईल...पईसा ही सबसे बड़का बाबु साहेब ह'-इधर अपनी किस्मत की मारी नायिका तवायफ के कोठे पर जा पहुँचती है और उधर अपनी खुद्दारी पर पिता द्वारा हमला होते देख नायक भी अवसाद में घर छोड़ देता है.तवायफ के हिस्से दो बेहतरीन संवाद हैं-'वेश्या के जनम देला तहरा नियन बाप,भाई और समाज-'और -'मरद के बड़ से बड़ गलती इ दुनिया माफ़ कर देला लेकिन औरत के एक गलती भी ना'-

'गंगा मईया..'के गीत भी उत्कृष्ट भोजपुरी कविताई का नमूना है.'हे गंगा मईया तोहे पियरी चढईबो,सईयाँ से कर द मिलनवा,हम त खेलत रहनी अम्मा जी के गोदिया,काहे बंसुरिया बजावल s ,मारे करेजवा में पीर,लुक-छिप बदरा में चमके जैसे चंदा,मोरा मुख दमके '-आदि गीत आज भी झूमने को मजबूर कर देते हैं.

वर्तमान की भोजपुरी फिल्में भाषा की काकटेल दे रही हैं,उसके उलट 'गंगा मईया...'की भाषा ठेठ भोजपुरी की होने के बावजूद चरित्र प्रधान है और फिल्म देखते हुए एकाएक लगता है गोया अपने ही गाँव की कहानी देख रहे हैं.बाज़ार का दबाव हमेशा से रहा है और रहेगा पर तब के लोग जो फिल्में बनाते थे,उसके जीवन-मूल्यों की महता को बरक़रार रखते थे.वर्तमान की भोजपुरी फिल्मों से वह अपनापन गायब होता जा रहा है और क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों के पतन का एक बड़ा कारण उनका अपने परिवेश-बोध से दूर होते जाना रहा है.सिनेमा की रचना-प्रक्रिया एक डिसिप्लिन की मांग करती है,जिसमें कहानी कहने का प्रयास भर ना हो बल्कि उस कहानी को उत्कृष्ट गीत-संगीत,अभिनय,सम्पादन,सिनेमेटोग्राफी तथा कुशल निर्देशन से उस कहानी को उसकी तात्कालिकता तथा परिवेश के साथ मिलाकर रचनात्मकता के साथ सामने लाना है.एक उम्दा फिल्म हवा-हवाई या रातों-रात तैयार नहीं होती.'गंगा मईया तोहे...'एक ऐसी ही फिल्म है जो तमाम विसंगतियों को साथ लेकर एक सुखान्त प्रेमकथा की भाव -भूमि रचती है और इसी नींव पर आज के भोजपुरी फिल्म जगत की ईमारत कड़ी है,अच्छी या बुरी यह तो समय तय करेगा पर इतना तो है कि'गंगा मईया...'जैसी फिल्म से किसी भाषा की फिल्मों की शुरुआत होना,क्रिकेट के खेल में पारी की पहली ही गेंद पर छक्का लगाने जैसा है,पर एक बात है ध्यान देने की है कि 'गंगा मईया...'की ईमानदारी आज की भोजपुरी फिल्मों से गायब होती जा रही है

रविवार, 10 जनवरी 2010

दिल्ली में होखे जा रहल बा विश्व भोजपुरी सम्मलेन



दुनिया भर में पसरल भोजपुरिहन के संख्या बीस करोड़ से बेसी बावे, आ ऊ जहँवे बाड़न तहँवे अपना भाषा संस्कृति का साथे जुड़ल बाड़े. आज जब दुनिया के सैकड़न भाषा मृतप्राय हो गइल बा, भोजपुरी तेजी से फरत फुलात बिया. एकर साहित्य आ सिनेमा दुननो दिनेदिन बढ़ले जात बा आगा. अमेरिका में कुछ सरकारी नौकरी खातिर भोजपुरीओ जानल जरुरी बा. मारीशस में एकरा के मान्यता मिल चुकल बा, ट्रिनिडाड टोबेगो, सूड़ीनाम फिजी वगैरह देशन में एकर प्रचार प्रसार तेजी से हो रहल बा. बाकिर अपने देश में एकरा ऊ जगहा नइखे मिल पावत जवना के ई हकदार बिया.
भोजपुरी के अनदेखी से नाराज पूर्वांचल एकता मंच के अध्यक्ष शिवजी सिंह के कहनाम बा कि भोजपुरी के संविधन का आठवीं अनुसूची में शामिल करावे के माँग ले के पूर्वांचल एकता मंच का तरफ से 9 आ 10 जनवरी 2010 के दादा देव मेला ग्राउंड, द्वारका, सेक्टर-8, दिल्ली में विश्व भोजपुरी सम्मेलन के आयोजन करावल जा रहल बा. दू दिन का एह सम्मेलन में देश-विदेश के हजारन भोजपुरिया शामिल होखे जा रहल बाड़े.

सम्मेलन में भोजपुरी भाषा-साहित्य आ संगीत के रंगारंग कार्यक्रमन का माध्यम से विश्व समुदाय आ भारत सरकार के धेयान एह तरफ खींचल जाई कि संविधान का आठवीं अनुसूची में सम्मिलित होखे के भोजपुरी के दावा कतना बरियार बा. अगर ओकरा बादो एह पर सरकार धेयान ना दिहलस त हमनी का आपन संघर्ष अउरी तेज करब जा.

विश्व भोजपुरी सम्मेलन-2010 के कार्यक्रम का बारे में विस्तार से जानकारी देत पूर्वांचल एकता मच के मीडिया प्रभारी संतोष सिन्हा आ आनन्द प्रकाश बतलवले कि 9 जनवरी 2010, शनिचर का दिने सम्मेलन के उद्घाटन माननीय लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार करीहें. पूर्व केन्द्रीय मंत्री जनेश्वर मिश्र मुख्य अतिथि रहिहन आ पूर्व सांसद प्रभुनाथ सिंह अध्यक्षता करीहन. दैनिक जागरण समाचार पत्र के मुख्य महाप्रबंधक निशिकांत ठाकुर विशिष्ट अतिथि रहीहन. एह अवसर पर सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह, रविशंकर प्रसाद, जगदिम्बका पाल, राजीव प्रताप रूढ़ी, महाबल मिश्रा, जगदानन्द सिंह, रमेश कुमार, मीना सिंह, पूर्व सांसद सज्जन कुमार, विधायक धर्मदेव सोलंकी, मुकेश शर्मा, सत्यप्रकाश राणा वगैरह अनेके अतिथि सम्मेलन के संबोधित करीहें.

सम्मेलन के अगिला सत्र में एगो साहित्यिक संगोष्ठी होखी जेकर विषय रही - भोजपुरी गद्य साहित्य की विकास-यात्रा. संगोष्ठी के उद्घाटन वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र करीहें. दूरदर्शन, दिल्ली में अधिकारी आ साहित्यकार डॉ. अमर नाथ अमर मुख्य अतिथि रहीहन. वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रमाशंकर श्रीवास्तव संगोष्ठी के अध्यक्षता करीहन. एह सत्र में त्रिनिदाद के स्कॉलर डॉ. पेंगी मोहन, मॉरिशस के सोमदत्त दौलतमन, हीरा जयगोविंद, अंबिका मनवोदे आ देश-विदेश के अलग अलग जगहा से आइल विद्वान डॉ. जयकान्त सिंह 'जय´, डॉ. शत्रुघ्न सिंह, डॉ. बृजभूषण मिश्रा, डॉ. जौहर शाफियाबादी, डॉ. जनार्दन सिंह, मनोज श्रीवास्तव, प्रमोद कुमार तिवारी वगैरह भोजपुरी गद्य साहित्य का विकास पर आपन राय रखीहें.

साहित्यिक संगोष्ठी का बाद भोजपुरी कवि सम्मेलन होखी जवना के उद्घाटन वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. केदारनाथ सिंह करीहें. साहित्यकार गुरूशरण सिंह मुख्य अतिथि रहीहे आ डॉ. गोरख प्रसाद मस्ताना अध्यक्षता करीहें. कवि सम्मेलन में प्रो. सुभाष यादव, डॉ. सुनील कुमार पंकज, सुरेश गुप्ता, मनोज भावुक, संतोष सिनहा, मैनावती देवी, संतोष पटेल, जितेन्द्र वर्मा, सुरेन्द्र राय, गुरुविन्दर सिंह वगैरह कविता पाठ करी लोग. तवना बाद सुप्रसिद्ध रंगकर्मी महेन्द्र प्रसाद सिंह का निर्देशन में लोटकी बाबा के रामलीला नाम के भोजपुरी नाटक के मंचन कइल जाई.

एही सत्र में सुर-संग्राम के सितारे नाम के सांस्कृतिक-संध्यो आयोजित कइल जाई जवना में भोजपुरी चैनल महुआ टी.वी. के रियलिटी शो सुर-संग्राम के प्रमुख कलाकार मोहन राठौर, आलोक कुमार, आलोक पाण्डेय, अनामिका सिंह, विजयेता गोस्वामी, रामाशीष बागी वगैरह आपन गीत-संगीत प्रस्तुत करीहें.

विश्व भोजपुरी सम्मेलन का दुसरका दिने 10 जनवरी रविवार के एगो परिचर्चा आयोजित कइल जाई जवना के विषय होखी - दिल्ली के विकास में पूर्वाचलवासियों का योगदान. परिचर्चा के उद्घाटन बिहार भवन के एडिशनल कमिश्नर के.राम करीहन. मुख्य अतिथि रहीहन विन्देश्वरी दूबे आ अध्यक्ष सियाराम पाण्डेय. एह इस परिचर्चा में दिल्ली के हर कोना से भोजपुरी आ पूर्वांचल के प्रचारक भाग लीहें. एह कार्यक्रम में पूर्वाचल एक्सप्रेस के संपादक कुलदीप श्रीवास्तव के अलंकृत कइल जाई.

परिचर्चा क बाद भोजपुरी गीत-संगीत क रंगारंग कार्यक्रम होखी जवना में कुमार शानू, मनोज तिवारी, रविकिशन, मालिनी अवस्थी, शर्मिला पाण्डेय, तरुण तुफानी, सीमा तिवारी, संगीता यादव आ महुआ टी.वी. के अनेके कलाकार आपन प्रस्तुति दीहें. एह सत्र में दिल्ली के मुख्यमंत्री शीला दीक्षित मुख्य अतिथि रहीहें आ अध्यक्षता करीहें भोजपुरी समाज के अध्यक्ष अजीत दुबे. सुप्रसिद्ध अभिनेता आ सांसद शत्रुघ्न सिन्हा आ पी.के. तिवारी के भोजपुरी गौरव सम्मान आ इण्डियन हास्पीटल के चेयरमैन डॉ. राजेश सिंह के पूर्वांचल गौरव सम्मान दीहल जाई. कार्यक्रम में आर.पी.एन. सिंह मंत्री, भारत सरकार, जय प्रकाश अग्रवाल सांसद, जगदिम्बका पाल सांसद, संजय निरूपम सांसद, सज्जन कुमार पूर्व सांसद, रमेश कुमार सांसद वगैरह लोग विशिष्ट अतिथि रही.
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विषय सूची.
* भोजपुरी सरोकार


* भोजपुरी साहित्य आ संस्कृति विषय पर गोष्ठी
(anjoria.com से साभार/सभे भोजपुरिया लोग खातिर


@अधिक से अधिक संख्या में भाग लेके सम्मलेन के सफल बनाईं लोग. )

शनिवार, 9 जनवरी 2010

उनकी आवाज़ अधरति‍या की आवाज़ थी-भिखारी ठाकुर


भिखारी ठाकुर बीसवीं शताब्‍दी के सांस्‍कृति‍क महानायकों में एक थे। उन्‍होंने अपनी कवि‍ताई और खेल तमाशा से बि‍हार और पूर्वी उत्‍तरप्रदेश की जनता तथा बंगाल और असम के हि‍न्‍दीभाषी प्रवासि‍यों की सांस्‍कृति‍क भूख को तृप्‍त कि‍या। वह हमारी लोक जि‍जीवि‍षा के नि‍श्‍छल प्रतीक हैं। कलात्‍मकता जि‍स सूक्ष्‍मता की मांग करती है उसका नि‍र्वाह करते हुए उन्‍होंने जो भी कहा दि‍खाया; वह सांच की आंच में तपा हुआ था। उन्‍होंने अपने गंवई संस्‍कार, ईश्‍वर की प्रीति‍, कुल‍, पेट का नरक‍, पुत्र की कामना‍, यश की लालसा आदि‍ कि‍सी बात पर परदा नहीं डाला। उनके रचे हुए का वाह्यजगत आकर्षक और सुगम है ताकि‍ हर कोई प्रवेश कर सके। किंतु प्रवेश के बाद नि‍कलना बहुत कठि‍न है। अंतर्जगत में धूल-धक्‍कड़ भरी आंधी है; और है – दहला देनेवाला आर्तनाद‍, टीसनेवाला करुण वि‍लाप‍, छील देनेवाला व्‍यंग्‍य तथा गहन संकटकाल में मर्म को सहलानेवाला नेह-छोह। उनकी नि‍श्‍छलता में शक्‍ति‍ और सतर्कता दोनों वि‍न्‍यस्‍त हैं। वह अपने को दीन-हीन कहते रहे पर अपने शब्‍दों और नाट्य की भंगि‍माओं से ज़ख़्मों को चीरते रहे। मानवीय प्रपंचों के बीच राह बनाते हुए आगे नि‍कल जाना और उन प्रपंचों की बखि‍या उधेड़ना उनकी अदा थी। तनी हुई रस्‍सी पर एक कुशल नट की तरह चलने की तरह था यह काम। उनके माथे पर थी लोक की भाव-संपदा की गठरी और ढोल-नगाड़ों की आवाज़ की जगह कानों में गूंजती थी धरती से उठती हा-हा ध्‍वनि‍यां। यह अद्भुत संतुलन था। इसी संतुलन से उन्‍होंने अपने लि‍ए रचनात्‍मक अनुशासन अर्जि‍त कि‍या और सामंती समाज की तमाम धारणाओं को पराजि‍त करते हुए संस्‍कृति‍ की दुनि‍या के महानायक बने।

भि‍खारी ठाकुर ने बि‍देसि‍या‍, भाई-वि‍रोध‍, बेटी-वि‍योग‍, वि‍धवा-वि‍लाप‍, कलयुग-प्रेम‍, राधेश्‍याम बहार‍, गंगा-स्‍नान‍, पुत्र-वध‍, गबरघि‍चोर‍, बि‍रहा-बहार‍, नकलभांड के नेटुआ‍, और ननद-भउजाई आदि‍ नाटकों की रचना की। भजन-कीर्तन और गीत-कवि‍ता आदि‍ की लगभग इतनी ही पुस्‍तकें प्रकाशि‍त हुईं। लोक प्रचलि‍त धुनों में रचे गये गीतों और मर्मस्‍पर्शी कथानक वाले नाटक बि‍देसि‍या ने भोजपुरीभाषी जनजीवन की चिंताओं को अभि‍व्‍यक्‍ति‍ दी। जीवि‍का की तलाश में दूरस्‍थ नगरों की ओर गये लोगों की गांव में छूट गयी स्‍त्रि‍यों की वि‍वि‍ध छवि‍यों को उन्‍होंने रंगछवि‍यों में रूपांतरि‍त कि‍या। अपनी लोकोपयोगिता के चलते बि‍देसि‍या भि‍खारी ठाकुर के समूचे सृजन का पर्याय बन गया। बेटी-वि‍योग में स्‍त्री-पीड़ा का एक और रूप सामने था। पशु की तरह कि‍सी भी खूंटे से बांध दिये जाने का दुख और वस्‍तु की तरह बेच कर धन-संग्रह के लालच की नि‍कृष्‍टता को उन्‍होंने अपने इस नाटक का कथ्‍य बनाया और ऐसी रंगभाषा रची जि‍सकी अर्थदीप्‍ति‍ से गह्वरों में छि‍पीं नृशंसताएं उजागर हो उठीं। यह अति‍शयोक्‍ति‍ नहीं है और जनश्रुति‍यों में दर्ज है कि‍ बेटी-वि‍योग के प्रदर्शन से भोजपुरीभाषी जीवन में भूचाल आ गया था। भि‍खारी ठाकुर को वि‍रोध का सामना करना पड़ा। पर यह वि‍रोध सांच की आंच के सामने टि‍क न सका। उनकी आवाज़ और अपेक्षाकृत टांसदार हो उठी। इतनी टांसदार कि‍ आज़ादी के बाद भी स्‍त्री-पीड़ा का नाद बन हिंदी कवि‍ता तक पहुंची। बेटी-वि‍योग का नाम उन दि‍नों ही गुम हो गया और जनता ने इसे नया नाम दि‍या – बेटी-बेचवा। गबरघि‍चोर नाटक में भि‍खारी ठाकुर वि‍स्‍मि‍त करते हैं। उनकी पृष्‍ठभूमि‍ ऐसी नहीं थी कि‍ उन्‍होंने खड़ि‍‍या का घेरा पढ़ा या देखा हो। कोख पर स्‍त्री के अधि‍कार के बुनि‍यादी प्रश्‍न को वह जि‍स कौशल के साथ रचते हैं, वह लोकजीवन के गहरे यथार्थ में धंसे बि‍ना सम्‍भव नहीं।

भि‍खारी ठाकुर पर यह आरोप लगता रहा कि‍ वह स्‍वतंत्रता संग्राम के उथल-पुथल भरे समय में नि‍रपेक्ष होकर नाचते-गाते रहे। यह सवाल उठता रहा कि‍ क्‍या सचमुच भि‍खारी ठाकुर के नाच का आज़ादी से कोई रि‍श्‍ता था। उनके नाच का आज़ादी से बड़ा सघन रि‍श्‍ता था। अंग्रेज़ों से देश की मुक्‍ति‍ के कोलाहल के बीच उनका नाच आधी आबादी के मुक्‍ति‍-संघर्ष की ज़मीन रच रहा था। भि‍खारी ठाकुर की आवाज़ अधरति‍या की आवाज़ थी। अंधेरे में रोती-कलपती और छाती पर मुक्‍के मारकर वि‍लाप करती स्‍त्रि‍यों का आवाज़। यह आवाज़ आज भी भटक रही है। राष्‍ट्रगान से टकरा रही है। (आलोचना पत्रि‍का में पूर्व प्रकाशि‍त लेख का संपादि‍त अंश)

(हृषीकेश सुलभ। कथाकार, नाटककार और नाट्यचिंतक। पथरकट, वधस्‍थल से छलांग, बंधा है काल, तूती की आवाज़, वसंत के हत्‍यारे – कथा-संग्रहों, अमली, बटोही और धरती आबा नाटकों, माटीगाड़ी और मैला आंचल नाट्यरूपांतरों के रचनाकार। नाट्यचिंतन की पुस्‍तक रंगमंच का जनतंत्र हाल ही में प्रकाशि‍त। उनसे hrishikesh.sulabh@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)mohalla live से साभार

रविवार, 3 जनवरी 2010

मेरा गाँव बदल गया है..

वैसे शैक्षणिक कारणों से घर से बाहर रहते तकरीबन १०-११ साल बीत चले हैं पर गांव-घर की खुशबू अभी भी वैसी ही सांसो में है.इस स्वीकार के पीछे हो सकता है मेरा गंवई मन हो. मैंने जबसे होश संभाला अपने आसपास के माहौल में एक जीवन्तता दिखी,मेरा गांव काफ़ी बड़ा है और जातिगत आधार पर टोले बँटे हुए हैं.बावजूद इसके यहाँ का परिवेश ऐसा था, जहाँ जात-पांत के कोई बड़े मायने नही थे.ये कोई सदियों पहले की बाद नही है बल्कि कुल जमा १०-१२ साल पहले की ही बात है. गांव में सबसे ज्यादा जनसँख्या राजपूतों और हरिजनों की है,बाद में मुसलमान और अन्य पिछडी जातियाँ आती हैं.कुछ समय पहले ही गांव की पंचायत सीट सुरक्षित घोषित हुई है और अब यहाँ के सरपंच/मुखिया दोनों ही दलित-वर्ग से आते हैं.साथ ही अपने गांव की एक और बात आपको बता दूँ कि मेरे गांव में आदर्श गांव की तमाम खूबियाँ मौजूद है.मसलन हर दूसरे-तीसरे घर में वो तमाम तकनीकी और जीवन को सुगम बनाने वाली सुविधाएं मौजूद हैं.जब तक मैं था या फ़िर मेरे साथ के और लड़के गांव में थे तब तक तो स्थिति बड़ी ही सुखद थी.मेहँदी हसन,परवेज़,जावेद,नौशाद,वारिश,कलीम सभी लड़के होली में रंगे नज़र आते थे और दीवाली में इनके घरों में भी रौशनी की जाती थी,और सब-ऐ-बरात पर हमारे यहाँ भी रौशनी की जाती.होली में मेरे यहाँ तीन चरणों में होली मानती है पहले रंगों वाली(इस होली में बच्चे-बच्चियां ,किशोर-किशोरियां शामिल होते),दुसरे में बूढे,जवान,बच्चे सभी शामिल होते ,जोगीरा गाया जाता और धूल,कीचड़ आदि से एक दूसरे को रंग कर एकमेक कर दिया जाता मानो सब एक दूसरे को यही संदेश देते थे कि आख़िर मिटटी का तन ख़ाक में ही तो जाना है क्यों विद्वेष पालना,फ़िर नहाने-धोने के बाद तीसरे चरण की होली साफ़-सुथरे,नए कपडों में अबीर और गुलाल से खेली जाती.यहाँ सिर्फ़ त्योहारों में ही नही बल्कि दिनचर्या में भाईचारा दीखता था जब कोई भी दुखहरण काका के सेहत की ख़बर ले लेता था और गांव की भौजाईयों से चुहल करता हुआ निकल जाता.घरो या बिरादरी का बंधन,मुसलमान ,हिंदू जातिभेद हो सकता है रहा हो पर उपरी तौर पर नहीं ही दिखता था.इससे जुड़ा एक वाकया याद आता है जो मेरे ही परिवार से ही जुडा है.हुआ यूँ था कि मेरी सबसे छोटी बहन बीमार थी मैं भी मिडिल स्कूल का छात्र था.तब हर जगह से निराश होने के बाद पिताजी ने व्रत लिया की रोजे और ताजिया रखेंगे जो बाद में हुआ भी और मुहर्रम के समय लगातार २ साल तक पिताजी ने ताजिया ख़ुद बनाया और जगह-जगह घुमाने के बाद कर्बला तक मैं ख़ुद अपने कंधो पर ले गया था जिसमे मेरे दो फुफेरे भाई और चंदन,संतोष जैसे दोस्त भी थे.मुहर्रम के अवसर पर निकलने वाले अखाडे में हमारे सभी धर्म-वर्ग के कोग अपने-अपने जौहर दिखाते थे.हिन्दुओं में ये अखाडा रक्षा-बंधन की शाम को निकलता था.इसे महावीरी अखाडा कहा जाता इस अखाडे में लतरी मियाँ(इनका असली नाम मुझे मालूम नहीं )के लाठी का कौशल आसपास के दस गांवों के लठैतों पर भारी था.अच्छा हुआ गांव की इस स्थिति को देखने से पहले ही अल्लाह ने उन्हें ऊपर बुला लिया.अब जबसे गोधरा हुआ है (गोधरा ही सबसे अधिक जिम्मेदार है क्योंकि अयोध्या अधिक दूर ना होने के बावजूद गांव का माहौल ख़राब न कर सका था या यूँ भी कह सकते हैं कि संचार माध्यमों की पहुँच इतने भीतर तक तब नहीं हुई थी)अब त्यौहार और अखाडे हिन्दुओं और मुसलमानों के हो गए हैं.नए लड़के तो पता नहीं किस हवा में रहते हैं,अपने साथ के लड़के भी जो अब बाहर रहने लगे हैं अजीब तरीके से दुआ-सलाम करते हैं.वारिश गांव में ही है कहता है-'इज्ज़त प्यारी हैं तो भाई इन छोकरों के मुंह ना लगो ,ये इतने बदतमीज़ हैं कि गांव की लड़कियों पर ही बुरी निगाह रखते हैं,बड़े-छोटों की तमीज तो छोड़ ही दो,ये तो पता नहीं किस जमाने की बात इन्हे लगती है"-मैं हैरत से देखता रहा उन लड़कों को जो बाईक पर बैठ कर तेज़ी से बगल से गुज़र जाते हैं और पता नहीं कैसा हार्न मारते हैं जिससे कि खूंटे से बंधे मवेशी बिदक जाते हैं.निजामुद्दीन चाचा जिनके लिए कहा जाता है कि उनके लिए उनकी अम्मी ने "छठ"का तीन दिवसीय बिना अन्न-जल के व्रत रखा था और मरने तक बड़ी खुशी से बताया करती थी कि "हमार निजाम,छठी माई के दिहल ह"-निजाम चाचा भी इस बात को एक्सेप्ट करते थे.आजकल दिल्ली में ही हैं और घर कम ही जाते हैं.रमजान बीते ज्यादा दिन नहीं हुए मगर ईद पर यूँ ही हॉस्टल के कमरे में रह गया बिना सेवईयों के.जब रोजे चल रहे थे तब फ़ोन किया कि -अब तो पिताजी कि ऐश होगी रोज़ इफ्तार के बहाने कुछ न कुछ बनाने की डिमांड करेंगे?'-मम्मी ने जवाब दिया-'बाक अब वे इफ्तार नही करते?'-हमारे घर में इफ्तार मुसलमान भाईयों के कम्पटीशन में होता था यानी पिताजी का मानना था कि-'खाली उन्ही की जागीर है क्या इफ्तार'-पिताजी बाकायदा नियम-कायदे से इफ्तार करते और शुरू करने से पहले हमसे मुस्कराकर कहते -'अभी कोई नहीं खायेगा पहले अजान हो जाने दो'-और हम पालन भी करते.मतलब एन्जॉय करने का कोई भी मौका नही छोड़ा जाता,ऐसा करने वाली फैमिली सिर्फ़ हमारी ही नहीं थी और भी कई थे पर अब...(?).खेतों में धान बोते मजदूरों के साथ लेव (धान बोने से पहले खेत में तैयार किए कीचड़)में खड़ा होने पर गांव के रिश्ते का भतीजा जो पटना में मेडिकल या इंजीनियरिंग की तैयारी करता है मुझसे उखड़े हुए बोला-'क्या मुन्ना चा (भोजपुरी समाज में चाचा को नाम के साथ चा जोड़ कर बोला जाता है)दिल्लियो रह कर भी एकदम महाराज एटिकेट नही सीखे अपना नहीं तो हम लोगों का ख्याल कीजिये महराज"-मैं सोचता हूँ अपने खेत में खड़ा होना भी किसी एटिकेट की मांग करता है क्या?अब मेहँदी मियाँ हाजी हो गए हैं और 'मिलाद'पढ़ते हैं पाँच वक्त के नमाजी हैं.दूर से मुस्कराकर निकल जाते हैं ये लड़का गांव का पहला पेस बॉलर था.श्याम बाबा कह रहे थे-'ऐ बाबा(ब्राह्मणों को बाबा कहते हैं)कहाँ-कहाँ कौन से टोला में घूमते रहते हो तुम्हे पता नहीं अब गांव का माहौल कितना ख़राब हो गया है?-अब मैं उनकी इस बात का क्या जवाब दूँ चुपचाप हूँ-हाँ कर देता हूँ.गांव में रिजर्व सीट होने के बाद सवर्णों की चिंता हैं कि'पता नहीं गांव का क्या होगा ?'-मेरा गांव बदल गया है और शायद ये बदलाव पुरे आसपास में हो रहा है........

उफान पर हैं भोजपुरी फिल्में.



कोई १०-१२ साल पहले की ही बात है जब सिनेमा पर बात करते हुए कोई भूले से भी भोजपुरी सिनेमा के ऊपर बात करता था,पर यह सीन अब बदल गया है.हिन्दी हलकों में सिनेमा से सम्बंधित कोई भी बात भोजपुरी सिनेमा के चर्चा के बिना शायद ही पूरी हो पाए.ऐसा नहीं है कि भोजपुरी सिनेमा अभी जुम्मा-जुम्मा कुछ सालों की पैदाईश है.सिनेमा पर थोडी-सी भी जानकारी रखने वाला इस बात को नहीं नकार सकता कि भोजपुरी की जड़े हिन्दी सिनेमा में बड़े गहरे तक रही हैं.बात चाहे ५० के दशक में आई 'नदिया के पार'की हो या फ़िर दिलीप कुमार की ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली फिल्मों की इन सभी में भोजपुरिया माटीअपने पूरे रंगत में मौजूद है.इतना ही नहीं ७० के दशक में जिन फिल्मों में सुपरस्टार अमिताभ बच्चन ने धरतीपुत्र टाइप इमेज में आते हैं उन सबका परिवेश ,ज़बान और ट्रीटमेंट तक भोजपुरिया रंग-ढंग का है.और इतना ही नहीं यकीन जानिए ये अमिताभ की हिट फिल्मों की श्रेणी में आती हैं।

वैसे भोजपुरिया फिल्मों का उफान बस यूँ ही नहीं आ गया है बल्कि इसके पीछे इस बड़े अंचल का दबाव और इस अंचल की सांस्कृतिक जरूरतों का ज्यादा असर है.९० का दशक भोजपुरी गीत-संगीत का दौर लेकर हमारे सामने आया ,अब ये गीत-संगीत कैसा था (श्लील या अश्लील),या फ़िर इनका वर्ग कौन सा था ये बाद की बात है.हालाँकि यह भी बड़ी कड़वी सच्चाई है कि इसके पीछे जो दिमाग लगा था वह किसी सांस्कृतिक मोह से नहीं बल्कि विशुद्ध बाजारू नज़रिए से आया था.वैसे इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि इसीकी दिखाई राह थी जो भोजपुरी सिनेमा का अपना बाज़ार/ अपना जगत बनने की ओर कुछ प्रयास होने शुरू हो गए.परिणाम ये हुआ कि अब तक भोजपुरी का जो मार्केट सुस्त था और जिसे भोजपुरी गीत-संगीत ने जगाया था वह अब चौकन्ना होकर जाग गया.वो कहते हैं ना कि सस्ती चीज़ टिकाऊ नहीं होती वही बात इन गीतों के साथ हुई क्योंकि कुछ ना होने की स्थिति में लोगों ने इन्हे सुननाशुरू किया था,मगर अब वैसी कोई मजबूरी नहीं रह गई .अब देखने वाले इस बात को आसानी से देख सकते हैं कि भोजपुरी अलबमों का सुहाना (?)दौर बीत चुका है लोग अब भी 'भरत शर्मा' ,महेंद्र मिश्रा'बालेश्वर यादव''कल्पना' ,'शारदा सिन्हा'जैसों को सुनना पसंद करते हैं जबकि 'गुड्डू रंगीला','राधेश्याम रसिया',जैसों को सुनते या उनका जिक्र आते ही गाली देते हैं।
ऐसा नहीं है कि भोजपुरी फ़िल्म जगत का ये दौर या उफान बस एकाएक ही आ गया .दरअसल पिछले १०-१५ सालों से हिन्दी सिनेमा से गाँव घर गायब हो चला है अब फिल्मों में यूरोप और एन आर आई मार्केट ही ध्यान में रखा जाने लगा था क्योंकि अपने देश में फ़िल्म के नहीं चल पाने की स्थिति में मुनाफे का मामला वहां से अडजस्ट कर लिया जाता .एक और बात इसी से जुड़ी हुई थी कि गाँव की जो तस्वीर इन फिल्मों में थी वह पंजाब ,गुजरात केंद्रित हो चला था स्थिति अभी भी ऐसी ही है.बस इतनी बड़ी आबादी को अब सिनेमा में अपनी कहानी चाहिए थी अपने व्रत-त्यौहार, अपने लोग,अपनी बात ,अपनी ज़बान चाहिए थी और समाज और मार्केट दोनों ही इसकी कमी शिद्दत से महसूस कर रहे थे और लोगों की इस भावनात्मक जरुरत को भोजपुरी फिल्मों ने पूरा किया और देखते ही देखते भोजपुर प्रदेश के किसी भी शहर के अधिकाँश सिनेमा-घरों में भोजपुरी फिल्में ही छा गई और दिनों दिन छाती जा रही है.अब तो इसका संसार अपने देश की सीमाओं के पार तक पहुँच गया है इतना ही नहीं इसके इस उभार को देखकर ही हमारे हिन्दी सिनेमा के बड़े-बड़े स्टार तक इन फिल्मों में काम कर रहे हैं,इस पूरे तबके को अब अपना ही माल चाहिए यही कारण है कि बिहार और पूर्वांचल के बड़े हिस्से में अक्षय कुमार की जबरदस्त हिट
फ़िल्म 'सिंह इज किंग'ठंडी रही।