रविवार, 10 जनवरी 2010

दिल्ली में होखे जा रहल बा विश्व भोजपुरी सम्मलेन



दुनिया भर में पसरल भोजपुरिहन के संख्या बीस करोड़ से बेसी बावे, आ ऊ जहँवे बाड़न तहँवे अपना भाषा संस्कृति का साथे जुड़ल बाड़े. आज जब दुनिया के सैकड़न भाषा मृतप्राय हो गइल बा, भोजपुरी तेजी से फरत फुलात बिया. एकर साहित्य आ सिनेमा दुननो दिनेदिन बढ़ले जात बा आगा. अमेरिका में कुछ सरकारी नौकरी खातिर भोजपुरीओ जानल जरुरी बा. मारीशस में एकरा के मान्यता मिल चुकल बा, ट्रिनिडाड टोबेगो, सूड़ीनाम फिजी वगैरह देशन में एकर प्रचार प्रसार तेजी से हो रहल बा. बाकिर अपने देश में एकरा ऊ जगहा नइखे मिल पावत जवना के ई हकदार बिया.
भोजपुरी के अनदेखी से नाराज पूर्वांचल एकता मंच के अध्यक्ष शिवजी सिंह के कहनाम बा कि भोजपुरी के संविधन का आठवीं अनुसूची में शामिल करावे के माँग ले के पूर्वांचल एकता मंच का तरफ से 9 आ 10 जनवरी 2010 के दादा देव मेला ग्राउंड, द्वारका, सेक्टर-8, दिल्ली में विश्व भोजपुरी सम्मेलन के आयोजन करावल जा रहल बा. दू दिन का एह सम्मेलन में देश-विदेश के हजारन भोजपुरिया शामिल होखे जा रहल बाड़े.

सम्मेलन में भोजपुरी भाषा-साहित्य आ संगीत के रंगारंग कार्यक्रमन का माध्यम से विश्व समुदाय आ भारत सरकार के धेयान एह तरफ खींचल जाई कि संविधान का आठवीं अनुसूची में सम्मिलित होखे के भोजपुरी के दावा कतना बरियार बा. अगर ओकरा बादो एह पर सरकार धेयान ना दिहलस त हमनी का आपन संघर्ष अउरी तेज करब जा.

विश्व भोजपुरी सम्मेलन-2010 के कार्यक्रम का बारे में विस्तार से जानकारी देत पूर्वांचल एकता मच के मीडिया प्रभारी संतोष सिन्हा आ आनन्द प्रकाश बतलवले कि 9 जनवरी 2010, शनिचर का दिने सम्मेलन के उद्घाटन माननीय लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार करीहें. पूर्व केन्द्रीय मंत्री जनेश्वर मिश्र मुख्य अतिथि रहिहन आ पूर्व सांसद प्रभुनाथ सिंह अध्यक्षता करीहन. दैनिक जागरण समाचार पत्र के मुख्य महाप्रबंधक निशिकांत ठाकुर विशिष्ट अतिथि रहीहन. एह अवसर पर सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह, रविशंकर प्रसाद, जगदिम्बका पाल, राजीव प्रताप रूढ़ी, महाबल मिश्रा, जगदानन्द सिंह, रमेश कुमार, मीना सिंह, पूर्व सांसद सज्जन कुमार, विधायक धर्मदेव सोलंकी, मुकेश शर्मा, सत्यप्रकाश राणा वगैरह अनेके अतिथि सम्मेलन के संबोधित करीहें.

सम्मेलन के अगिला सत्र में एगो साहित्यिक संगोष्ठी होखी जेकर विषय रही - भोजपुरी गद्य साहित्य की विकास-यात्रा. संगोष्ठी के उद्घाटन वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र करीहें. दूरदर्शन, दिल्ली में अधिकारी आ साहित्यकार डॉ. अमर नाथ अमर मुख्य अतिथि रहीहन. वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रमाशंकर श्रीवास्तव संगोष्ठी के अध्यक्षता करीहन. एह सत्र में त्रिनिदाद के स्कॉलर डॉ. पेंगी मोहन, मॉरिशस के सोमदत्त दौलतमन, हीरा जयगोविंद, अंबिका मनवोदे आ देश-विदेश के अलग अलग जगहा से आइल विद्वान डॉ. जयकान्त सिंह 'जय´, डॉ. शत्रुघ्न सिंह, डॉ. बृजभूषण मिश्रा, डॉ. जौहर शाफियाबादी, डॉ. जनार्दन सिंह, मनोज श्रीवास्तव, प्रमोद कुमार तिवारी वगैरह भोजपुरी गद्य साहित्य का विकास पर आपन राय रखीहें.

साहित्यिक संगोष्ठी का बाद भोजपुरी कवि सम्मेलन होखी जवना के उद्घाटन वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. केदारनाथ सिंह करीहें. साहित्यकार गुरूशरण सिंह मुख्य अतिथि रहीहे आ डॉ. गोरख प्रसाद मस्ताना अध्यक्षता करीहें. कवि सम्मेलन में प्रो. सुभाष यादव, डॉ. सुनील कुमार पंकज, सुरेश गुप्ता, मनोज भावुक, संतोष सिनहा, मैनावती देवी, संतोष पटेल, जितेन्द्र वर्मा, सुरेन्द्र राय, गुरुविन्दर सिंह वगैरह कविता पाठ करी लोग. तवना बाद सुप्रसिद्ध रंगकर्मी महेन्द्र प्रसाद सिंह का निर्देशन में लोटकी बाबा के रामलीला नाम के भोजपुरी नाटक के मंचन कइल जाई.

एही सत्र में सुर-संग्राम के सितारे नाम के सांस्कृतिक-संध्यो आयोजित कइल जाई जवना में भोजपुरी चैनल महुआ टी.वी. के रियलिटी शो सुर-संग्राम के प्रमुख कलाकार मोहन राठौर, आलोक कुमार, आलोक पाण्डेय, अनामिका सिंह, विजयेता गोस्वामी, रामाशीष बागी वगैरह आपन गीत-संगीत प्रस्तुत करीहें.

विश्व भोजपुरी सम्मेलन का दुसरका दिने 10 जनवरी रविवार के एगो परिचर्चा आयोजित कइल जाई जवना के विषय होखी - दिल्ली के विकास में पूर्वाचलवासियों का योगदान. परिचर्चा के उद्घाटन बिहार भवन के एडिशनल कमिश्नर के.राम करीहन. मुख्य अतिथि रहीहन विन्देश्वरी दूबे आ अध्यक्ष सियाराम पाण्डेय. एह इस परिचर्चा में दिल्ली के हर कोना से भोजपुरी आ पूर्वांचल के प्रचारक भाग लीहें. एह कार्यक्रम में पूर्वाचल एक्सप्रेस के संपादक कुलदीप श्रीवास्तव के अलंकृत कइल जाई.

परिचर्चा क बाद भोजपुरी गीत-संगीत क रंगारंग कार्यक्रम होखी जवना में कुमार शानू, मनोज तिवारी, रविकिशन, मालिनी अवस्थी, शर्मिला पाण्डेय, तरुण तुफानी, सीमा तिवारी, संगीता यादव आ महुआ टी.वी. के अनेके कलाकार आपन प्रस्तुति दीहें. एह सत्र में दिल्ली के मुख्यमंत्री शीला दीक्षित मुख्य अतिथि रहीहें आ अध्यक्षता करीहें भोजपुरी समाज के अध्यक्ष अजीत दुबे. सुप्रसिद्ध अभिनेता आ सांसद शत्रुघ्न सिन्हा आ पी.के. तिवारी के भोजपुरी गौरव सम्मान आ इण्डियन हास्पीटल के चेयरमैन डॉ. राजेश सिंह के पूर्वांचल गौरव सम्मान दीहल जाई. कार्यक्रम में आर.पी.एन. सिंह मंत्री, भारत सरकार, जय प्रकाश अग्रवाल सांसद, जगदिम्बका पाल सांसद, संजय निरूपम सांसद, सज्जन कुमार पूर्व सांसद, रमेश कुमार सांसद वगैरह लोग विशिष्ट अतिथि रही.
======================================================================
विषय सूची.
* भोजपुरी सरोकार


* भोजपुरी साहित्य आ संस्कृति विषय पर गोष्ठी
(anjoria.com से साभार/सभे भोजपुरिया लोग खातिर


@अधिक से अधिक संख्या में भाग लेके सम्मलेन के सफल बनाईं लोग. )

शनिवार, 9 जनवरी 2010

उनकी आवाज़ अधरति‍या की आवाज़ थी-भिखारी ठाकुर


भिखारी ठाकुर बीसवीं शताब्‍दी के सांस्‍कृति‍क महानायकों में एक थे। उन्‍होंने अपनी कवि‍ताई और खेल तमाशा से बि‍हार और पूर्वी उत्‍तरप्रदेश की जनता तथा बंगाल और असम के हि‍न्‍दीभाषी प्रवासि‍यों की सांस्‍कृति‍क भूख को तृप्‍त कि‍या। वह हमारी लोक जि‍जीवि‍षा के नि‍श्‍छल प्रतीक हैं। कलात्‍मकता जि‍स सूक्ष्‍मता की मांग करती है उसका नि‍र्वाह करते हुए उन्‍होंने जो भी कहा दि‍खाया; वह सांच की आंच में तपा हुआ था। उन्‍होंने अपने गंवई संस्‍कार, ईश्‍वर की प्रीति‍, कुल‍, पेट का नरक‍, पुत्र की कामना‍, यश की लालसा आदि‍ कि‍सी बात पर परदा नहीं डाला। उनके रचे हुए का वाह्यजगत आकर्षक और सुगम है ताकि‍ हर कोई प्रवेश कर सके। किंतु प्रवेश के बाद नि‍कलना बहुत कठि‍न है। अंतर्जगत में धूल-धक्‍कड़ भरी आंधी है; और है – दहला देनेवाला आर्तनाद‍, टीसनेवाला करुण वि‍लाप‍, छील देनेवाला व्‍यंग्‍य तथा गहन संकटकाल में मर्म को सहलानेवाला नेह-छोह। उनकी नि‍श्‍छलता में शक्‍ति‍ और सतर्कता दोनों वि‍न्‍यस्‍त हैं। वह अपने को दीन-हीन कहते रहे पर अपने शब्‍दों और नाट्य की भंगि‍माओं से ज़ख़्मों को चीरते रहे। मानवीय प्रपंचों के बीच राह बनाते हुए आगे नि‍कल जाना और उन प्रपंचों की बखि‍या उधेड़ना उनकी अदा थी। तनी हुई रस्‍सी पर एक कुशल नट की तरह चलने की तरह था यह काम। उनके माथे पर थी लोक की भाव-संपदा की गठरी और ढोल-नगाड़ों की आवाज़ की जगह कानों में गूंजती थी धरती से उठती हा-हा ध्‍वनि‍यां। यह अद्भुत संतुलन था। इसी संतुलन से उन्‍होंने अपने लि‍ए रचनात्‍मक अनुशासन अर्जि‍त कि‍या और सामंती समाज की तमाम धारणाओं को पराजि‍त करते हुए संस्‍कृति‍ की दुनि‍या के महानायक बने।

भि‍खारी ठाकुर ने बि‍देसि‍या‍, भाई-वि‍रोध‍, बेटी-वि‍योग‍, वि‍धवा-वि‍लाप‍, कलयुग-प्रेम‍, राधेश्‍याम बहार‍, गंगा-स्‍नान‍, पुत्र-वध‍, गबरघि‍चोर‍, बि‍रहा-बहार‍, नकलभांड के नेटुआ‍, और ननद-भउजाई आदि‍ नाटकों की रचना की। भजन-कीर्तन और गीत-कवि‍ता आदि‍ की लगभग इतनी ही पुस्‍तकें प्रकाशि‍त हुईं। लोक प्रचलि‍त धुनों में रचे गये गीतों और मर्मस्‍पर्शी कथानक वाले नाटक बि‍देसि‍या ने भोजपुरीभाषी जनजीवन की चिंताओं को अभि‍व्‍यक्‍ति‍ दी। जीवि‍का की तलाश में दूरस्‍थ नगरों की ओर गये लोगों की गांव में छूट गयी स्‍त्रि‍यों की वि‍वि‍ध छवि‍यों को उन्‍होंने रंगछवि‍यों में रूपांतरि‍त कि‍या। अपनी लोकोपयोगिता के चलते बि‍देसि‍या भि‍खारी ठाकुर के समूचे सृजन का पर्याय बन गया। बेटी-वि‍योग में स्‍त्री-पीड़ा का एक और रूप सामने था। पशु की तरह कि‍सी भी खूंटे से बांध दिये जाने का दुख और वस्‍तु की तरह बेच कर धन-संग्रह के लालच की नि‍कृष्‍टता को उन्‍होंने अपने इस नाटक का कथ्‍य बनाया और ऐसी रंगभाषा रची जि‍सकी अर्थदीप्‍ति‍ से गह्वरों में छि‍पीं नृशंसताएं उजागर हो उठीं। यह अति‍शयोक्‍ति‍ नहीं है और जनश्रुति‍यों में दर्ज है कि‍ बेटी-वि‍योग के प्रदर्शन से भोजपुरीभाषी जीवन में भूचाल आ गया था। भि‍खारी ठाकुर को वि‍रोध का सामना करना पड़ा। पर यह वि‍रोध सांच की आंच के सामने टि‍क न सका। उनकी आवाज़ और अपेक्षाकृत टांसदार हो उठी। इतनी टांसदार कि‍ आज़ादी के बाद भी स्‍त्री-पीड़ा का नाद बन हिंदी कवि‍ता तक पहुंची। बेटी-वि‍योग का नाम उन दि‍नों ही गुम हो गया और जनता ने इसे नया नाम दि‍या – बेटी-बेचवा। गबरघि‍चोर नाटक में भि‍खारी ठाकुर वि‍स्‍मि‍त करते हैं। उनकी पृष्‍ठभूमि‍ ऐसी नहीं थी कि‍ उन्‍होंने खड़ि‍‍या का घेरा पढ़ा या देखा हो। कोख पर स्‍त्री के अधि‍कार के बुनि‍यादी प्रश्‍न को वह जि‍स कौशल के साथ रचते हैं, वह लोकजीवन के गहरे यथार्थ में धंसे बि‍ना सम्‍भव नहीं।

भि‍खारी ठाकुर पर यह आरोप लगता रहा कि‍ वह स्‍वतंत्रता संग्राम के उथल-पुथल भरे समय में नि‍रपेक्ष होकर नाचते-गाते रहे। यह सवाल उठता रहा कि‍ क्‍या सचमुच भि‍खारी ठाकुर के नाच का आज़ादी से कोई रि‍श्‍ता था। उनके नाच का आज़ादी से बड़ा सघन रि‍श्‍ता था। अंग्रेज़ों से देश की मुक्‍ति‍ के कोलाहल के बीच उनका नाच आधी आबादी के मुक्‍ति‍-संघर्ष की ज़मीन रच रहा था। भि‍खारी ठाकुर की आवाज़ अधरति‍या की आवाज़ थी। अंधेरे में रोती-कलपती और छाती पर मुक्‍के मारकर वि‍लाप करती स्‍त्रि‍यों का आवाज़। यह आवाज़ आज भी भटक रही है। राष्‍ट्रगान से टकरा रही है। (आलोचना पत्रि‍का में पूर्व प्रकाशि‍त लेख का संपादि‍त अंश)

(हृषीकेश सुलभ। कथाकार, नाटककार और नाट्यचिंतक। पथरकट, वधस्‍थल से छलांग, बंधा है काल, तूती की आवाज़, वसंत के हत्‍यारे – कथा-संग्रहों, अमली, बटोही और धरती आबा नाटकों, माटीगाड़ी और मैला आंचल नाट्यरूपांतरों के रचनाकार। नाट्यचिंतन की पुस्‍तक रंगमंच का जनतंत्र हाल ही में प्रकाशि‍त। उनसे hrishikesh.sulabh@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)mohalla live से साभार

रविवार, 3 जनवरी 2010

मेरा गाँव बदल गया है..

वैसे शैक्षणिक कारणों से घर से बाहर रहते तकरीबन १०-११ साल बीत चले हैं पर गांव-घर की खुशबू अभी भी वैसी ही सांसो में है.इस स्वीकार के पीछे हो सकता है मेरा गंवई मन हो. मैंने जबसे होश संभाला अपने आसपास के माहौल में एक जीवन्तता दिखी,मेरा गांव काफ़ी बड़ा है और जातिगत आधार पर टोले बँटे हुए हैं.बावजूद इसके यहाँ का परिवेश ऐसा था, जहाँ जात-पांत के कोई बड़े मायने नही थे.ये कोई सदियों पहले की बाद नही है बल्कि कुल जमा १०-१२ साल पहले की ही बात है. गांव में सबसे ज्यादा जनसँख्या राजपूतों और हरिजनों की है,बाद में मुसलमान और अन्य पिछडी जातियाँ आती हैं.कुछ समय पहले ही गांव की पंचायत सीट सुरक्षित घोषित हुई है और अब यहाँ के सरपंच/मुखिया दोनों ही दलित-वर्ग से आते हैं.साथ ही अपने गांव की एक और बात आपको बता दूँ कि मेरे गांव में आदर्श गांव की तमाम खूबियाँ मौजूद है.मसलन हर दूसरे-तीसरे घर में वो तमाम तकनीकी और जीवन को सुगम बनाने वाली सुविधाएं मौजूद हैं.जब तक मैं था या फ़िर मेरे साथ के और लड़के गांव में थे तब तक तो स्थिति बड़ी ही सुखद थी.मेहँदी हसन,परवेज़,जावेद,नौशाद,वारिश,कलीम सभी लड़के होली में रंगे नज़र आते थे और दीवाली में इनके घरों में भी रौशनी की जाती थी,और सब-ऐ-बरात पर हमारे यहाँ भी रौशनी की जाती.होली में मेरे यहाँ तीन चरणों में होली मानती है पहले रंगों वाली(इस होली में बच्चे-बच्चियां ,किशोर-किशोरियां शामिल होते),दुसरे में बूढे,जवान,बच्चे सभी शामिल होते ,जोगीरा गाया जाता और धूल,कीचड़ आदि से एक दूसरे को रंग कर एकमेक कर दिया जाता मानो सब एक दूसरे को यही संदेश देते थे कि आख़िर मिटटी का तन ख़ाक में ही तो जाना है क्यों विद्वेष पालना,फ़िर नहाने-धोने के बाद तीसरे चरण की होली साफ़-सुथरे,नए कपडों में अबीर और गुलाल से खेली जाती.यहाँ सिर्फ़ त्योहारों में ही नही बल्कि दिनचर्या में भाईचारा दीखता था जब कोई भी दुखहरण काका के सेहत की ख़बर ले लेता था और गांव की भौजाईयों से चुहल करता हुआ निकल जाता.घरो या बिरादरी का बंधन,मुसलमान ,हिंदू जातिभेद हो सकता है रहा हो पर उपरी तौर पर नहीं ही दिखता था.इससे जुड़ा एक वाकया याद आता है जो मेरे ही परिवार से ही जुडा है.हुआ यूँ था कि मेरी सबसे छोटी बहन बीमार थी मैं भी मिडिल स्कूल का छात्र था.तब हर जगह से निराश होने के बाद पिताजी ने व्रत लिया की रोजे और ताजिया रखेंगे जो बाद में हुआ भी और मुहर्रम के समय लगातार २ साल तक पिताजी ने ताजिया ख़ुद बनाया और जगह-जगह घुमाने के बाद कर्बला तक मैं ख़ुद अपने कंधो पर ले गया था जिसमे मेरे दो फुफेरे भाई और चंदन,संतोष जैसे दोस्त भी थे.मुहर्रम के अवसर पर निकलने वाले अखाडे में हमारे सभी धर्म-वर्ग के कोग अपने-अपने जौहर दिखाते थे.हिन्दुओं में ये अखाडा रक्षा-बंधन की शाम को निकलता था.इसे महावीरी अखाडा कहा जाता इस अखाडे में लतरी मियाँ(इनका असली नाम मुझे मालूम नहीं )के लाठी का कौशल आसपास के दस गांवों के लठैतों पर भारी था.अच्छा हुआ गांव की इस स्थिति को देखने से पहले ही अल्लाह ने उन्हें ऊपर बुला लिया.अब जबसे गोधरा हुआ है (गोधरा ही सबसे अधिक जिम्मेदार है क्योंकि अयोध्या अधिक दूर ना होने के बावजूद गांव का माहौल ख़राब न कर सका था या यूँ भी कह सकते हैं कि संचार माध्यमों की पहुँच इतने भीतर तक तब नहीं हुई थी)अब त्यौहार और अखाडे हिन्दुओं और मुसलमानों के हो गए हैं.नए लड़के तो पता नहीं किस हवा में रहते हैं,अपने साथ के लड़के भी जो अब बाहर रहने लगे हैं अजीब तरीके से दुआ-सलाम करते हैं.वारिश गांव में ही है कहता है-'इज्ज़त प्यारी हैं तो भाई इन छोकरों के मुंह ना लगो ,ये इतने बदतमीज़ हैं कि गांव की लड़कियों पर ही बुरी निगाह रखते हैं,बड़े-छोटों की तमीज तो छोड़ ही दो,ये तो पता नहीं किस जमाने की बात इन्हे लगती है"-मैं हैरत से देखता रहा उन लड़कों को जो बाईक पर बैठ कर तेज़ी से बगल से गुज़र जाते हैं और पता नहीं कैसा हार्न मारते हैं जिससे कि खूंटे से बंधे मवेशी बिदक जाते हैं.निजामुद्दीन चाचा जिनके लिए कहा जाता है कि उनके लिए उनकी अम्मी ने "छठ"का तीन दिवसीय बिना अन्न-जल के व्रत रखा था और मरने तक बड़ी खुशी से बताया करती थी कि "हमार निजाम,छठी माई के दिहल ह"-निजाम चाचा भी इस बात को एक्सेप्ट करते थे.आजकल दिल्ली में ही हैं और घर कम ही जाते हैं.रमजान बीते ज्यादा दिन नहीं हुए मगर ईद पर यूँ ही हॉस्टल के कमरे में रह गया बिना सेवईयों के.जब रोजे चल रहे थे तब फ़ोन किया कि -अब तो पिताजी कि ऐश होगी रोज़ इफ्तार के बहाने कुछ न कुछ बनाने की डिमांड करेंगे?'-मम्मी ने जवाब दिया-'बाक अब वे इफ्तार नही करते?'-हमारे घर में इफ्तार मुसलमान भाईयों के कम्पटीशन में होता था यानी पिताजी का मानना था कि-'खाली उन्ही की जागीर है क्या इफ्तार'-पिताजी बाकायदा नियम-कायदे से इफ्तार करते और शुरू करने से पहले हमसे मुस्कराकर कहते -'अभी कोई नहीं खायेगा पहले अजान हो जाने दो'-और हम पालन भी करते.मतलब एन्जॉय करने का कोई भी मौका नही छोड़ा जाता,ऐसा करने वाली फैमिली सिर्फ़ हमारी ही नहीं थी और भी कई थे पर अब...(?).खेतों में धान बोते मजदूरों के साथ लेव (धान बोने से पहले खेत में तैयार किए कीचड़)में खड़ा होने पर गांव के रिश्ते का भतीजा जो पटना में मेडिकल या इंजीनियरिंग की तैयारी करता है मुझसे उखड़े हुए बोला-'क्या मुन्ना चा (भोजपुरी समाज में चाचा को नाम के साथ चा जोड़ कर बोला जाता है)दिल्लियो रह कर भी एकदम महाराज एटिकेट नही सीखे अपना नहीं तो हम लोगों का ख्याल कीजिये महराज"-मैं सोचता हूँ अपने खेत में खड़ा होना भी किसी एटिकेट की मांग करता है क्या?अब मेहँदी मियाँ हाजी हो गए हैं और 'मिलाद'पढ़ते हैं पाँच वक्त के नमाजी हैं.दूर से मुस्कराकर निकल जाते हैं ये लड़का गांव का पहला पेस बॉलर था.श्याम बाबा कह रहे थे-'ऐ बाबा(ब्राह्मणों को बाबा कहते हैं)कहाँ-कहाँ कौन से टोला में घूमते रहते हो तुम्हे पता नहीं अब गांव का माहौल कितना ख़राब हो गया है?-अब मैं उनकी इस बात का क्या जवाब दूँ चुपचाप हूँ-हाँ कर देता हूँ.गांव में रिजर्व सीट होने के बाद सवर्णों की चिंता हैं कि'पता नहीं गांव का क्या होगा ?'-मेरा गांव बदल गया है और शायद ये बदलाव पुरे आसपास में हो रहा है........

उफान पर हैं भोजपुरी फिल्में.



कोई १०-१२ साल पहले की ही बात है जब सिनेमा पर बात करते हुए कोई भूले से भी भोजपुरी सिनेमा के ऊपर बात करता था,पर यह सीन अब बदल गया है.हिन्दी हलकों में सिनेमा से सम्बंधित कोई भी बात भोजपुरी सिनेमा के चर्चा के बिना शायद ही पूरी हो पाए.ऐसा नहीं है कि भोजपुरी सिनेमा अभी जुम्मा-जुम्मा कुछ सालों की पैदाईश है.सिनेमा पर थोडी-सी भी जानकारी रखने वाला इस बात को नहीं नकार सकता कि भोजपुरी की जड़े हिन्दी सिनेमा में बड़े गहरे तक रही हैं.बात चाहे ५० के दशक में आई 'नदिया के पार'की हो या फ़िर दिलीप कुमार की ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली फिल्मों की इन सभी में भोजपुरिया माटीअपने पूरे रंगत में मौजूद है.इतना ही नहीं ७० के दशक में जिन फिल्मों में सुपरस्टार अमिताभ बच्चन ने धरतीपुत्र टाइप इमेज में आते हैं उन सबका परिवेश ,ज़बान और ट्रीटमेंट तक भोजपुरिया रंग-ढंग का है.और इतना ही नहीं यकीन जानिए ये अमिताभ की हिट फिल्मों की श्रेणी में आती हैं।

वैसे भोजपुरिया फिल्मों का उफान बस यूँ ही नहीं आ गया है बल्कि इसके पीछे इस बड़े अंचल का दबाव और इस अंचल की सांस्कृतिक जरूरतों का ज्यादा असर है.९० का दशक भोजपुरी गीत-संगीत का दौर लेकर हमारे सामने आया ,अब ये गीत-संगीत कैसा था (श्लील या अश्लील),या फ़िर इनका वर्ग कौन सा था ये बाद की बात है.हालाँकि यह भी बड़ी कड़वी सच्चाई है कि इसके पीछे जो दिमाग लगा था वह किसी सांस्कृतिक मोह से नहीं बल्कि विशुद्ध बाजारू नज़रिए से आया था.वैसे इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि इसीकी दिखाई राह थी जो भोजपुरी सिनेमा का अपना बाज़ार/ अपना जगत बनने की ओर कुछ प्रयास होने शुरू हो गए.परिणाम ये हुआ कि अब तक भोजपुरी का जो मार्केट सुस्त था और जिसे भोजपुरी गीत-संगीत ने जगाया था वह अब चौकन्ना होकर जाग गया.वो कहते हैं ना कि सस्ती चीज़ टिकाऊ नहीं होती वही बात इन गीतों के साथ हुई क्योंकि कुछ ना होने की स्थिति में लोगों ने इन्हे सुननाशुरू किया था,मगर अब वैसी कोई मजबूरी नहीं रह गई .अब देखने वाले इस बात को आसानी से देख सकते हैं कि भोजपुरी अलबमों का सुहाना (?)दौर बीत चुका है लोग अब भी 'भरत शर्मा' ,महेंद्र मिश्रा'बालेश्वर यादव''कल्पना' ,'शारदा सिन्हा'जैसों को सुनना पसंद करते हैं जबकि 'गुड्डू रंगीला','राधेश्याम रसिया',जैसों को सुनते या उनका जिक्र आते ही गाली देते हैं।
ऐसा नहीं है कि भोजपुरी फ़िल्म जगत का ये दौर या उफान बस एकाएक ही आ गया .दरअसल पिछले १०-१५ सालों से हिन्दी सिनेमा से गाँव घर गायब हो चला है अब फिल्मों में यूरोप और एन आर आई मार्केट ही ध्यान में रखा जाने लगा था क्योंकि अपने देश में फ़िल्म के नहीं चल पाने की स्थिति में मुनाफे का मामला वहां से अडजस्ट कर लिया जाता .एक और बात इसी से जुड़ी हुई थी कि गाँव की जो तस्वीर इन फिल्मों में थी वह पंजाब ,गुजरात केंद्रित हो चला था स्थिति अभी भी ऐसी ही है.बस इतनी बड़ी आबादी को अब सिनेमा में अपनी कहानी चाहिए थी अपने व्रत-त्यौहार, अपने लोग,अपनी बात ,अपनी ज़बान चाहिए थी और समाज और मार्केट दोनों ही इसकी कमी शिद्दत से महसूस कर रहे थे और लोगों की इस भावनात्मक जरुरत को भोजपुरी फिल्मों ने पूरा किया और देखते ही देखते भोजपुर प्रदेश के किसी भी शहर के अधिकाँश सिनेमा-घरों में भोजपुरी फिल्में ही छा गई और दिनों दिन छाती जा रही है.अब तो इसका संसार अपने देश की सीमाओं के पार तक पहुँच गया है इतना ही नहीं इसके इस उभार को देखकर ही हमारे हिन्दी सिनेमा के बड़े-बड़े स्टार तक इन फिल्मों में काम कर रहे हैं,इस पूरे तबके को अब अपना ही माल चाहिए यही कारण है कि बिहार और पूर्वांचल के बड़े हिस्से में अक्षय कुमार की जबरदस्त हिट
फ़िल्म 'सिंह इज किंग'ठंडी रही।